Wednesday, October 28, 2015

क्या उठती है तलब 
तेरे दिल में भी कभी 
भरके मुझे बाहों में 
सीने से लगा ले 

मुझे तोह ये ख़याल जाने कितनी मर्तबा 
बेचैनियों के सिलसिले देके जाता है 



Thursday, October 8, 2015

दोहरा रहा है ख़ुदको ,समय का कोई लम्हा 
तब भी आँसू बहाये थे, आज भी टूट कर रोये हैँ 

तब भी कोई नहीं था, लम्बी ख़ाली राहों में 
आज भी तन्हा खडें हैँ , इन बंजर रास्तों पर 

मूँदकर आँखों को, जो सुलझा पाते अँधेरे 
नींद के ख़याल से, न घबराता ये दिल 

बाक़ायदा ये इल्म था, अँजाम क्या होगा 
तब भी लूटा बैठे, जान-ओ-ज़िन्दगी उन पर 

हम ख़ुदको क़त्ल करदे, उनकी एक आह हो 
और वो है की इन आँखों को भी पढ़ नहीं पातें 

उठ के फिर चलें हैँ, इरादों के कारवां 
ख़ुदा करें के अब तोह ये उनपर ना रुके 

मंज़िलों का शौक़ , काफ़िर नहीं रखतें 
नेक हमसफ़र हो तोह ज़िन्दगी मुक्कमिल 

Tuesday, October 6, 2015

मेरे सब्र के इम्तेहाँ का इम्तेहां हो चला 
जो चाहके भी न चाहा वो काम हो चला 
ऐसा ढला सूरज की रौशनी को तरस गए 
सिवा तुम्हारे हर आँखों से आंसू बरस गए 
मेरे ही आने की शायद राह थी बाकी 
कदमो में काँच टुटके, गिर सके ताकि 
सीने से छलक के, सैलाब बह ना जाये 
बिन तेरे बूत मेरा, बेज़ान ढह न जाये 
समय की कतार में, बेबाक़ से खड़े है 
तूने कहा ये ज़िद्द है , हम प्यार पे अड़े हैं 
हलक़ निगल सका ना , थी दुआ या ज़ेहर 
तू नसीब का करम, या तकदीर का केहर 
कोई तो बताये, दिल से निकाला जाये कैसे 
भूलकर उसे, खुदको संभाला जाये कैसे 
नामुराद दिल को यूँ, उनसे लगा लेते है 
बेदर्द को ही क्यूँ, लख़्ते जिग़र बना लेते है
मर्ज़ ऐसा है की,ला-इलाज पेश आता है
बस इक दीदार, क़तरा क़तरा संवर जाता है
सख़्ती से थाम रख्खा है, आरज़ूओं की लगाम क़ो 
दे ना जाना ज़ख़्मी मोड़, मेरे इश्क़ के अंजाम को 
बहरहाल वज़ूद तो, वैसे भी क्या है मेरा 
आँखों से इन होंठों से बरसता है नूर तेरा 
रिश्तों पे मोहर तो वैसे भी नहीं थी चाही 
तेरी नज़र जैसे हुक्म , तेरी बात पक्की सिहाई 
ख़यालों के भँवर का अब ला दो वो पहर 
चुभते हैं अँधेरे , करदो अब सहर 
जागते इन ख्वाबो को करना है नींद से रूबरू 
छोड़ के ना जाओ या फिर लादो कोई खुदसा हूबहू 




Monday, September 14, 2015

मुट्ठी में रेत सा रिश्ता है तेरा मेरा 
जितना कसती जाती हूँ , उतना बिखरता जाता है !!

Friday, July 10, 2015

टकरा जाता हूँ 
मैं ठोकर खाता हूँ 
लड़खड़ाता हूँ 
निराशाजनक 
मैं अक़्सर हार जाता हूँ 
तू क्यूँ मग़र 
ये बोझ उतारती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

कभी दुनियादारों से 
कभी रिश्तेदारों से 
कभी लख़्ते रूह से 
कभी अज़ीज़ यारो से 
मैं ही मात खा जाता हूँ 
तू क्यूँ मगर 
मात खाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

यूँ तो दम बहोत हैं 
मेरे ख़ूने जिग़र में 
शोले मगर अपनों के 
वो दाग़ दे जाते हैं 
मोम सा दर मैं पिघल जाता हूँ 
तू क्यूँ मगर 
सर झुकाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

मेरा दामन भरा है 
तेरी आज़माइशों से 
मेरी साँसे चलतीं हैं 
तेरी ही ख्वाइशों से 

कभी मेरे भी ख्वाबों की डोर थामे 
तू क्यूँ मगर 
क़दम बढ़ाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

कश्मकश में जीता हूँ 
तिनका तिनका मरता हूँ 
सूरज की तीख़ी किरणों से 
ख़ुदको ज़िंदा करता हूँ 
जीने मरने के बीच कहीं खो जाता हूँ 
मौत क्यूँ मगर मुझे आज़माती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

Thursday, July 9, 2015

कभी यूँ लगा 
की शहर ठीक नहीं 
तो कभी यूँ की शायद 
लोग ही ख़राब है 
इन ज़द्दोज़हद का 
मरहम यूँ लगा 
शहर छोड़ देना ही 
मुक़म्मिल ईलाज़ है 

शहर दर शहर 
घऱ दर बदर 
जानें कितने घाट का यूँ पानी चख़ लिया 
कुछ दिल में समेटे 
कुछ आँखों में भर लिए 
हर जगह की निशानी टूटा ख़ाब रख लिया 

इक बात जो ना बदली 
यूँ शहर बदल बदल 
उन परछाईयों का हर बार 
मेरे साथ हो लेना 
उन तन्हाइयों का हर बार 
मेरे साथ हो लेना 

नयी ज़मीं सजाती हूँ 
नया आसमाँ लगाती हूँ 
नयी उम्मीदों की नींव पे 
नया घऱ बनातीं हूँ 
जानें किस दरवाज़े से लौट आते हैं मगर 
कुछ बिछड़े कारवाँ , कुछ अधूरे से सफ़र 
कुछ उलझी हवाएँ , अनुदार फिज़ाएँ 
फ़िर हो जाता है इस दिल को असुगम वो शहर 

फिर लोग अनैतिक लगतें हैं 
हर बात लगे दुख़दायी 
हर चीज़ मैं विश दीखता है 
हर सख्श लगे सौदाई 
फिर मनका पंछी पिंजड़े से उड़ने को व्याकुल होता है 
रोम रोम फिर शहर त्याग करने को तत्पर होता है 

चलता रहता है ये सिलसिला 
शहर बदलतें रहते हैं 
पेचीदा ख़याल मेरे 
गुथ्थियोँ में मचलते रहते हैं 

शायद ये ख़ता इन शहरों की नहीं 
उन लोगों की नहीं, हालातों की नहीं 
ये मर्ज़ मेरे दिल के ही किसी घर में पलता है 
जो संग मेरे हर देश हर शहर में चलता है 

बहरहाल इलाज इसका यूँ दौड़ते रहने में नहीं 
अंजान हो जाने में नहीं, शहर बदलने में नहीं 
थामके खुदको खुदके ही सामने लाना होगा 
आँखों में आँखें डालकर ये बतलाना होगा 
डर का वो समंदर मुझमें ही बसता है 
नाकामयाबी का ज़हर खुदको ही ड़स्ता है 
करनी है जो जिऱाह, खुदसे ही करनी होगी 
ये लड़ाई औरो से नहीं, खुदसे ही लड़नी होगी 
बंद करो यूँ भागना अपने अंदर के वन से 
सिखों नया कुछ अब तो अपने ही जीवन से 
शहरों के मुखोटों में खुदको दबाना बंद करो 
बदलाव को अपनाना सीखो, मुँह छिपाना बंद करो 

Saturday, June 27, 2015

शब्द नहीं मिलते 
और बात रह जाती है 
अक़्सर ख्वाहिशें 
आँसूओं में बह जाती है 

Thursday, June 25, 2015

हम दोनो ही हम दोनों की तक़दीर में नहीं थे 
वर्ना आज हम दोनों में क्या दुश्मनी है कोई !
तुम भी मुस्कुराते हो, हम भी मुस्कुराते हैं 
वाक़ई हमारी ज़िन्दगियों में क्या कमी है कोई?

Saturday, June 6, 2015

उस किताब मे कितने अल्फ़ाज़ मिले 
इस काग़ज़ पे मगर कोई निशाँ ही नहीं 
अब जब की नज़र आने लगीं मंज़िले 
तो राहों को मिलती कोई दिशा ही नहीं 


Friday, February 27, 2015

कुछ गुनाहों की 
कोई सज़ा नहीं होती 
कोई प्रायष्चित नहीं होता 
कोई माफ़ी नहीं होती  

ता उम्र वो गुनाह 
साथ चलते हैं 
दहकते अंगारों से 
दिल में जलते है 

आँखों का नासूर बन 
रोने नहीं देते 
ख़ौफ़नाक ख़्वाब बन 
सोने नहीं देते 

आईने में रूबरू,
होते हैं शाम-ओ-सेहर जो 
शर्मशार निग़ाहों पे 
ढाते है केहेर वो 

सीने का दाग वो 
दर्द का आलाप वो 
बिरहा का राग वो 
लेख जोख हिसाब वो 

वो फेरिश्त उन गुनाहो की अनछुई रह जाती है 
फिर भी हर घड़ी पल पल, समय वही दोहराती है 
जीने नहीं देता सुकून से, एहसास उनके होने का 
पैया पैया मोल कटता है, पाने का और खोने का 

भर जाता है पीड़ा से जब, कण कण छलनी सीने का 
हर गुनाह फिर पूछता है,"क्या आया मज़ा कुछ जीने का?"

तब भी कहाँ उतरते है 
कंधो से बोझे आहों के 
चिता तक साथ निभाते है 
साये उन गुनाहों के 

वाक़ई कुछ गुनाहों की 
कोई सज़ा नहीं होती 
क़तरा क़तरा बिक जाये 
क़ीमत अदा नहीं होती 

Thursday, February 5, 2015

यक़ीनन वैसे ठीक थे 
तुम वहाँ, हम यहाँ 
ख़ामख़ा तुम ख़्वाब लिए 
देहलीज़ पे आ गए 
हम उसको हक़ीक़त जानके 
फिर प्यार कर बैठे 

आलम फिर वही हैँ 
तुम कही, हम कहीं हैँ 
दिल कम्भखत जाने क्यों 
फिर भी रुका वहीँ हैं 

बुलबुले से उठते हैं 
ख्वाहिशो की रेत से 
खुदमे समेटे हुए 
चेहरा तुम्हारा 
हसीं तुम्हारी 
और प्यार की मीठी 
बातें हमारी 

पर,
 जब उदासी छू लेती है 
 बेमानी उन बुलबुलों को 
झट से टूट बिखर जाते है 
जाने खाब किधर जातें है 
चुभते हैं फिर आँखों में 
रेत के तीखे सच्चे कण 
और सोचते है फिर से हम 

काश 
न तुमसे मिलना होता 
न होता तुमसे प्यार 
न फिरसे दिल की राह पे चलते 
न करते फिर ऐतबार 
किसी सवाल का जवाब मेरे पास नहीं 
किसी पल का हिसाब मेरे पास नहीं 
कुछ है गर अभी तो ये उलझन ही है 
सब होकर भी क्यू कुछ मेरे पास नहीं