कुछ नज़र में , कुछ लबो पर सजा दीजिये
हमें भी नफरत हो जाये , वो वजह दीजिये
सुकून के मौसम में खूब दिया हमें
बेचैनी की रस्मे भी अब अदा कीजिये
होंश में रहे हम , तो दर्द ही बाटेंगे
प्यार करलें कुछ आपसे , कोई नशा दीजिये
न रहा कोई ख्वाब , न ख्वाबो की ज़मीन
मिटटी को वो महल , अब मिटा दीजिये
धुए में रासते हैं , और रास्तो पर हम
इक तमाचा जड़ के , हमें जगा दीजिये
शायद बदकिस्मती से, फिर देख लो हमें
न हो ग़म दुबारा , शक्ल भुला दीजिये
माफ़ी तो नहीं बनती , और न ही कभी देना
मगर हक बनता है , कुछ सज़ा दीजिये