Wednesday, May 18, 2011


कुछ  नज़र  में , कुछ  लबो  पर  सजा  दीजिये 
हमें  भी   नफरत  हो  जाये , वो  वजह  दीजिये

सुकून  के  मौसम  में  खूब  दिया  हमें 
बेचैनी  की  रस्मे  भी  अब  अदा  कीजिये 

होंश  में  रहे  हम , तो  दर्द  ही  बाटेंगे 
प्यार  करलें  कुछ  आपसे , कोई  नशा  दीजिये

न  रहा  कोई  ख्वाब , न  ख्वाबो  की  ज़मीन 
मिटटी  को  वो  महल , अब  मिटा  दीजिये

धुए  में  रासते  हैं , और  रास्तो  पर  हम
इक  तमाचा  जड़  के , हमें  जगा  दीजिये

शायद  बदकिस्मती  से,  फिर  देख  लो  हमें
न  हो  ग़म  दुबारा ,  शक्ल  भुला  दीजिये

माफ़ी  तो  नहीं  बनती , और  न  ही  कभी  देना 
मगर  हक  बनता  है , कुछ  सज़ा  दीजिये