Thursday, October 8, 2015

दोहरा रहा है ख़ुदको ,समय का कोई लम्हा 
तब भी आँसू बहाये थे, आज भी टूट कर रोये हैँ 

तब भी कोई नहीं था, लम्बी ख़ाली राहों में 
आज भी तन्हा खडें हैँ , इन बंजर रास्तों पर 

मूँदकर आँखों को, जो सुलझा पाते अँधेरे 
नींद के ख़याल से, न घबराता ये दिल 

बाक़ायदा ये इल्म था, अँजाम क्या होगा 
तब भी लूटा बैठे, जान-ओ-ज़िन्दगी उन पर 

हम ख़ुदको क़त्ल करदे, उनकी एक आह हो 
और वो है की इन आँखों को भी पढ़ नहीं पातें 

उठ के फिर चलें हैँ, इरादों के कारवां 
ख़ुदा करें के अब तोह ये उनपर ना रुके 

मंज़िलों का शौक़ , काफ़िर नहीं रखतें 
नेक हमसफ़र हो तोह ज़िन्दगी मुक्कमिल 

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