Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Saturday, June 27, 2015
शब्द नहीं मिलते और बात रह जाती है अक़्सर ख्वाहिशें आँसूओं में बह जाती है
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