Friday, November 22, 2013

मेरा मन इतना विचलित य़ू भी तो है
तेरे मन कि अधिरता अभी कम न हुई
परस्पर होना सम्बन्धों कि आधीनता नहीं
न होकर भी कोई हर क्षण कितना अपना लगता है

आँखें मूंद लेने से अंधकार नहीं मिटता 
किन्तु निद्रा स्वप्न से स्नेह भेट कर जाती है 
यकायक रोम रोम उत्तेजित युही नहीं होता 
कोई मधुर स्मरण अधरों पे स्मित धर जाती है  

मन का आंगन सेज़ कभी, कभी कन्टक प्रतीत होता है 
भावनाओं का गमन किन्तु धैर्य नहीं खोता 
ऐसा नहीं कि आस्थाओं कि नींव निर्बल हो गयी 
बस जान लिया कि मन का चाहा सब नहीं होता