Friday, February 1, 2013

जो अबके हैं बिखरे 
हम रेत की भाति 
कैसे समेटे ये
तिनके हज़ार 
मद्होंश होजाना 
कुछ नया तो नहीं 
बेहोशीं के ज़रिये 
कुछ बदल गए 

आवाज़-ओ-लहज़ा 
कुछ नहीं बदला 
बदला है तो बस 
अंदाज़ बात का 
मान, स्वभिमान 
कब अभिमान हुआ 
इस बात का इल्म 
शायद नहीं उसे 

लकीरों पे यकीं 
जब खुदसे ज्यादा हो 
अफ़सोस , फिर लकीरें 
ख़ुदा बन जाती हैं 
कदमो का दोष क्या है 
वो तो बोझ ढो रहे
रास्तों का चयन तो 
दिलो-दिमाग ने किया 

लौटकर आउंगी
तब फुर्सत से खोजूंगी
जो खोये है उलझनों मे
मैंने लम्हे कई कीमती
सुबह के हलकी रौशनी में
खुली हवा में अंगड़ाई
साँसों की रफ़्तार को
फिर धीमी कर देखूंगी