मेरे सब्र के इम्तेहाँ का इम्तेहां हो चला
जो चाहके भी न चाहा वो काम हो चला
ऐसा ढला सूरज की रौशनी को तरस गए
सिवा तुम्हारे हर आँखों से आंसू बरस गए
मेरे ही आने की शायद राह थी बाकी
कदमो में काँच टुटके, गिर सके ताकि
सीने से छलक के, सैलाब बह ना जाये
बिन तेरे बूत मेरा, बेज़ान ढह न जाये
समय की कतार में, बेबाक़ से खड़े है
तूने कहा ये ज़िद्द है , हम प्यार पे अड़े हैं
हलक़ निगल सका ना , थी दुआ या ज़ेहर
तू नसीब का करम, या तकदीर का केहर
कोई तो बताये, दिल से निकाला जाये कैसे
भूलकर उसे, खुदको संभाला जाये कैसे
नामुराद दिल को यूँ, उनसे लगा लेते है
बेदर्द को ही क्यूँ, लख़्ते जिग़र बना लेते है
मर्ज़ ऐसा है की,ला-इलाज पेश आता है
बस इक दीदार, क़तरा क़तरा संवर जाता है
सख़्ती से थाम रख्खा है, आरज़ूओं की लगाम क़ो
दे ना जाना ज़ख़्मी मोड़, मेरे इश्क़ के अंजाम को
बहरहाल वज़ूद तो, वैसे भी क्या है मेरा
आँखों से इन होंठों से बरसता है नूर तेरा
रिश्तों पे मोहर तो वैसे भी नहीं थी चाही
तेरी नज़र जैसे हुक्म , तेरी बात पक्की सिहाई
ख़यालों के भँवर का अब ला दो वो पहर
चुभते हैं अँधेरे , करदो अब सहर
जागते इन ख्वाबो को करना है नींद से रूबरू
छोड़ के ना जाओ या फिर लादो कोई खुदसा हूबहू