Saturday, October 22, 2011

उसकी बेशर्मियत  की हद्द देखि
अपनी बेवकूफ़ियो का असर देखा !

विश्वास की धज्जियां उडी और जली
बय्मानी का धुआं दर बदर देखा !

आँख मूंदे चल दिए साथ उसके
धोके का जाल, न एक नज़र देखा !

सच के मुखोटे में झूट छूप गया
फरेबी ने प्यार से, इस कदर देखा !

उसकी आँखों से हर पहलु, चुना और बुना
नामुमकिन कुछ ख्वाबो का बसर देखा !

नियत मैं खोट का इल्म न हुआ,
जब तक न खुद पर टूटता, कहर देखा !

कहते  रहे लोग, कभी सुना  ही  नहीं 
प्यार मैं डूब जाने  का हषर देखा !

शहद में डुबोके जो हर शब्द कहता था
उसकी बातो में अब उगलता ज़हर देखा !

इस बात की तस्सली देके, खुद को संभाला है
शुक्र है उसके साथ ना, हर पहर देखा !

मगर एक अफ़सोस आखरी दम तक रहेगा
आखिर क्यों उस कमज़र्फ  का, शहर देखा  !