Friday, July 10, 2015

टकरा जाता हूँ 
मैं ठोकर खाता हूँ 
लड़खड़ाता हूँ 
निराशाजनक 
मैं अक़्सर हार जाता हूँ 
तू क्यूँ मग़र 
ये बोझ उतारती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

कभी दुनियादारों से 
कभी रिश्तेदारों से 
कभी लख़्ते रूह से 
कभी अज़ीज़ यारो से 
मैं ही मात खा जाता हूँ 
तू क्यूँ मगर 
मात खाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

यूँ तो दम बहोत हैं 
मेरे ख़ूने जिग़र में 
शोले मगर अपनों के 
वो दाग़ दे जाते हैं 
मोम सा दर मैं पिघल जाता हूँ 
तू क्यूँ मगर 
सर झुकाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

मेरा दामन भरा है 
तेरी आज़माइशों से 
मेरी साँसे चलतीं हैं 
तेरी ही ख्वाइशों से 

कभी मेरे भी ख्वाबों की डोर थामे 
तू क्यूँ मगर 
क़दम बढ़ाती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

कश्मकश में जीता हूँ 
तिनका तिनका मरता हूँ 
सूरज की तीख़ी किरणों से 
ख़ुदको ज़िंदा करता हूँ 
जीने मरने के बीच कहीं खो जाता हूँ 
मौत क्यूँ मगर मुझे आज़माती नहीं 
क्यूँ ज़िन्दगी तू मुझसे 
कभी हारती नहीं 

Thursday, July 9, 2015

कभी यूँ लगा 
की शहर ठीक नहीं 
तो कभी यूँ की शायद 
लोग ही ख़राब है 
इन ज़द्दोज़हद का 
मरहम यूँ लगा 
शहर छोड़ देना ही 
मुक़म्मिल ईलाज़ है 

शहर दर शहर 
घऱ दर बदर 
जानें कितने घाट का यूँ पानी चख़ लिया 
कुछ दिल में समेटे 
कुछ आँखों में भर लिए 
हर जगह की निशानी टूटा ख़ाब रख लिया 

इक बात जो ना बदली 
यूँ शहर बदल बदल 
उन परछाईयों का हर बार 
मेरे साथ हो लेना 
उन तन्हाइयों का हर बार 
मेरे साथ हो लेना 

नयी ज़मीं सजाती हूँ 
नया आसमाँ लगाती हूँ 
नयी उम्मीदों की नींव पे 
नया घऱ बनातीं हूँ 
जानें किस दरवाज़े से लौट आते हैं मगर 
कुछ बिछड़े कारवाँ , कुछ अधूरे से सफ़र 
कुछ उलझी हवाएँ , अनुदार फिज़ाएँ 
फ़िर हो जाता है इस दिल को असुगम वो शहर 

फिर लोग अनैतिक लगतें हैं 
हर बात लगे दुख़दायी 
हर चीज़ मैं विश दीखता है 
हर सख्श लगे सौदाई 
फिर मनका पंछी पिंजड़े से उड़ने को व्याकुल होता है 
रोम रोम फिर शहर त्याग करने को तत्पर होता है 

चलता रहता है ये सिलसिला 
शहर बदलतें रहते हैं 
पेचीदा ख़याल मेरे 
गुथ्थियोँ में मचलते रहते हैं 

शायद ये ख़ता इन शहरों की नहीं 
उन लोगों की नहीं, हालातों की नहीं 
ये मर्ज़ मेरे दिल के ही किसी घर में पलता है 
जो संग मेरे हर देश हर शहर में चलता है 

बहरहाल इलाज इसका यूँ दौड़ते रहने में नहीं 
अंजान हो जाने में नहीं, शहर बदलने में नहीं 
थामके खुदको खुदके ही सामने लाना होगा 
आँखों में आँखें डालकर ये बतलाना होगा 
डर का वो समंदर मुझमें ही बसता है 
नाकामयाबी का ज़हर खुदको ही ड़स्ता है 
करनी है जो जिऱाह, खुदसे ही करनी होगी 
ये लड़ाई औरो से नहीं, खुदसे ही लड़नी होगी 
बंद करो यूँ भागना अपने अंदर के वन से 
सिखों नया कुछ अब तो अपने ही जीवन से 
शहरों के मुखोटों में खुदको दबाना बंद करो 
बदलाव को अपनाना सीखो, मुँह छिपाना बंद करो