Sunday, August 29, 2010

शायद कोई क़र्ज़ था, यु उतर गया
खुदा अपने वादे से फिर मुकर गया
ढलते ढलते शाम, देखो ढल गयी
जो था हमारा आज, यु गुज़र गया


शिकायतों के पुल बांधे नहीं गए
सबर का बहाव बस उभर गया
लकीरों में ढूंड रहे थे जो निशाँ
झलक दिखा के वो जाने किधर गया


चल रहे थे उसकी परछाईयों को देख
हों लिए हम भी वोह जिधर गया
दम भरने हम कुछ पल क्या रुक गए
आगे निकल वोह हमें गुमराह कर गया


पीते पीते इतनी पी ली है बेरुखी
खुमारी का सारा नशा उतर गया
उसके भी खयालो में हम आया करते होंगे
अपने दिल से अब ये  ख्याल मर गया

No comments:

Post a Comment