Monday, December 6, 2010

वफ़ा के इम्तेहान अभी, बाकी है कई
तूफाँ की एक लहर से ना,तू यु नज़र चुरा
छु के मुझको वादे ,जो किये थे तब कभी 
इस उम्र जो निभा दो, तो मानू में ज़रा 


गम का ये बिछौना, अब कैसे समेटा जाए 
सागर भी छोटा सा है, लगे है कम धरा
कुरेदे जा रहे हैं, ज़ख्म उँगलियों से
तू आये जब यहाँ तो मिले, हर ज़ख्म हरा


चुप रहना नहीं मुश्किल, मुश्किल है खुदसे कहना
सबर के घूँट पीले, काफिर वक़्त है बुरा
गुज़रा हुआ लम्हा, जो तुझसे मुझतक आया 
एहसास उस एक पल का, अब तक नहीं मरा

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