Friday, February 27, 2015

कुछ गुनाहों की 
कोई सज़ा नहीं होती 
कोई प्रायष्चित नहीं होता 
कोई माफ़ी नहीं होती  

ता उम्र वो गुनाह 
साथ चलते हैं 
दहकते अंगारों से 
दिल में जलते है 

आँखों का नासूर बन 
रोने नहीं देते 
ख़ौफ़नाक ख़्वाब बन 
सोने नहीं देते 

आईने में रूबरू,
होते हैं शाम-ओ-सेहर जो 
शर्मशार निग़ाहों पे 
ढाते है केहेर वो 

सीने का दाग वो 
दर्द का आलाप वो 
बिरहा का राग वो 
लेख जोख हिसाब वो 

वो फेरिश्त उन गुनाहो की अनछुई रह जाती है 
फिर भी हर घड़ी पल पल, समय वही दोहराती है 
जीने नहीं देता सुकून से, एहसास उनके होने का 
पैया पैया मोल कटता है, पाने का और खोने का 

भर जाता है पीड़ा से जब, कण कण छलनी सीने का 
हर गुनाह फिर पूछता है,"क्या आया मज़ा कुछ जीने का?"

तब भी कहाँ उतरते है 
कंधो से बोझे आहों के 
चिता तक साथ निभाते है 
साये उन गुनाहों के 

वाक़ई कुछ गुनाहों की 
कोई सज़ा नहीं होती 
क़तरा क़तरा बिक जाये 
क़ीमत अदा नहीं होती 

1 comment:

  1. Katra Katra bik jae
    Keemat ada nahi hoti...

    Just one word for these two lines..."wah"!!

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