Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Monday, November 17, 2014
उल्फ़त सा बहरहाल कोई दर्द ही नहीं शायद इस दर्द सा कोई ज़र्द ही नहीं उनसे क़ुर्बतों के है हासिल भी अज़ीब ला-इलाज़ बेबसी सा कोई मर्ज़ ही नहीं
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