यक़ीनन वैसे ठीक थे
तुम वहाँ, हम यहाँ
ख़ामख़ा तुम ख़्वाब लिए
देहलीज़ पे आ गए
हम उसको हक़ीक़त जानके
फिर प्यार कर बैठे
आलम फिर वही हैँ
तुम कही, हम कहीं हैँ
दिल कम्भखत जाने क्यों
फिर भी रुका वहीँ हैं
बुलबुले से उठते हैं
ख्वाहिशो की रेत से
खुदमे समेटे हुए
चेहरा तुम्हारा
हसीं तुम्हारी
और प्यार की मीठी
बातें हमारी
पर,
जब उदासी छू लेती है
बेमानी उन बुलबुलों को
झट से टूट बिखर जाते है
जाने खाब किधर जातें है
चुभते हैं फिर आँखों में
रेत के तीखे सच्चे कण
और सोचते है फिर से हम
काश
न तुमसे मिलना होता
न होता तुमसे प्यार
न फिरसे दिल की राह पे चलते
न करते फिर ऐतबार
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