Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Saturday, November 15, 2014
फ़ासले दरमियाँ के मुक्कमिल रहे ज़ेह्न -ओ-ख़्वाब में तब भी हासिल रहे ज़ेहर हो, लत हो, क्या चीज़ हो 'जाना' ना होकर भी ज़िन्दगी में शामिल रहे
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