Sunday, November 4, 2012

उल्फत के दो पहलु, 
इक हम ,
इक तुम .

बाकी जो दरमियाँ में रहा ;
वो मौसम का तकाज़ा  था .

कभी आँखों से पिया था; 
कभी साँसों मैं जिया था ,

तीखी थी मुलाकातें कई पर;
बारीशें मिसरी ही रहीं .

गुब्बारों में छुपकर सोचा ;
ये दुनिया हमारी हुई ,

कांटो में उलझकर अरमां; 
मिटटी होकर बिखर गए .

हाथो की नज़दीकियों  में ;
मौसम नरमाई दे गया ,

दोनों उसी रास्ते पर है ,
दिशायें विरोधी हो गयी ..

बयानों के पर्चे ख़त्म ना होंगे 
हा मगर,
सुनने को अब हम तुम नहीं ..

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