Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Saturday, January 8, 2011
एक आवाज़ पे हमारी, लौट आएंगे वो.. समेट लेंगी फिरसे, वो बाहें हमें.. भुलाके वो शिकवे और सारे गिले शर्त है जो फिर ना, वो चाहे हमें ..
मगर बात सारी, थम जाती है यहीं की आवाज़ हमारी उनतक, अब जाती ही नहीं..
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