Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Sunday, October 10, 2010
उल्फत के शहर की कोई सरहद बनाता उन लकीरों को कभी हम पार ना करते इल्म होता ग़म का ज़रासा इस खेल में तो भूले से कभी हम प्यार ना करते
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