Farz-E-Muhaal->> An impossible hypothesis
जाने किस खाख से जड़ दिया नाचीज़ को,
दर्द भी दामन में फूलों से लगतें है!
हमें रुलाके वोह भी गम्घीन हों जाए,
इतना असर अपनी आहों में रखतें है!
Thursday, October 7, 2010
तूफ़ान से कोई वादा करके, आई हों क्या ज़िन्दगी हर कदम पर खुशियों से, नज़रे चुराए जाती हों
तिनका तिनका बिखरा जाये रेत का सा ढेर है धीरे से कण कण तुम, सागर में समाये जाती हों
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