Wednesday, October 6, 2010

ना खन्न है
ना छन्न है
खाली सा मन है
कितना समेटोगे
ये गहरा वन है 

पतझड़ के पत्तो की किर किर लगी है
बरसों के प्यासे ये लक्कड़ पड़े है 
पानी और नदियों में रिश्ता नहीं है
सुखी सी माटी का उजड़ा चमन है


दूर तक सौंधी कोई खुसबू नहीं है
बुत बनके कबसे ये पत्थर खड़े है
म्रिगत्रिश्नाओ से हों जाते है घायल
 मीलो तक फैला ये निर्दय सा रण है

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