कुछ खुदा की खुराफात
कुछ तकदीर ऐसी जनाब
कितना भी अच्छा कीजिये
काम हों जाता खराब
कब तक बे गुनाही की कसमे खाते रहे
कब तक हर बात का यकीं दिलातें रहे
कब तक खुद ही खुदके अरमानो को कोसें
कब तक चुनते रहे हम बिखरे हुए ख्वाब
तारो का ये खेल है शायद
या मनहूसियत कुछ हम में है
क्युकी वोह तो येही कहतें है
हमने पहने है कई नकाब
सज़ा का डर तो कभी ना था
खुदको बेगुनाह समझते रहे
आज जब खुद उसने सुनाई है सज़ा
दर्द पर छाया है कुछ और ही शबाब
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