Monday, September 20, 2010

कुछ खुदा की खुराफात
कुछ तकदीर ऐसी जनाब
कितना भी अच्छा कीजिये
काम हों जाता खराब
       कब तक बे गुनाही की कसमे खाते रहे
       कब तक हर बात का यकीं दिलातें रहे
       कब तक खुद ही खुदके अरमानो को कोसें
       कब तक चुनते रहे हम बिखरे हुए ख्वाब
तारो का ये खेल है शायद
या मनहूसियत कुछ हम में है
क्युकी वोह तो येही कहतें है
हमने पहने है कई नकाब
        सज़ा का डर तो कभी ना था
        खुदको बेगुनाह समझते रहे
        आज जब खुद उसने सुनाई है सज़ा
        दर्द पर छाया  है कुछ और ही शबाब 

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